Wednesday, November 2, 2011


मंदिर-वंदिर,मन्नत-वन्नत सब बेमतलब बेमानी रे
दर-दर मत्था फोड़ के हमने बात यही बस जानी रे
नाम धर्म का लेकर संतों ने भी धंधा खोल लिया है
वेद-पुराण पर पाखंडों की चलती निज मनमानी रे।
सबरी,केवट और सुदामा की अब पूछ कहां होती है
मालिक की नीयत भी छप्पन भोग पे है बिक जानी रे
जीना है तो शान से खुद की ताकत के बल पे जीना
देख कुंवर फिर मालिक की भी ताकत है झुक जानी रे।
कुंवर प्रीतम


2 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

Sateek Panktiyan

विशाल सिंह (Vishaal Singh) said...

हमेशा की तरह........एक बार फिर......आपकी कलम चली..........शब्द का प्रवाह हुआ....और दिल में मची खलबली.....और मुंह से निकला वाह - वाह - वाह - वाह - वाह !!!!