Wednesday, November 2, 2011


मंदिर-वंदिर,मन्नत-वन्नत सब बेमतलब बेमानी रे
दर-दर मत्था फोड़ के हमने बात यही बस जानी रे
नाम धर्म का लेकर संतों ने भी धंधा खोल लिया है
वेद-पुराण पर पाखंडों की चलती निज मनमानी रे।
सबरी,केवट और सुदामा की अब पूछ कहां होती है
मालिक की नीयत भी छप्पन भोग पे है बिक जानी रे
जीना है तो शान से खुद की ताकत के बल पे जीना
देख कुंवर फिर मालिक की भी ताकत है झुक जानी रे।
कुंवर प्रीतम


Wednesday, October 26, 2011


छोड़ पुरानी रीतियां त्याग सभी दस्तूर
देख तुम्हारे पास ही खड़ा विवश मजदूर
खड़ा विवश मजदूर,लिए तन पर केवल चिथड़े
भूखी आंखें ताक रही हैं केवल रोटी के टुकड़े
मालिक के घर में भी भइया भेदभाव होता है
दीवाली दस फीसद की,नब्बे फीसद रोता है
कुंवर प्रीतम

Wednesday, August 10, 2011

कैसा है अब गांव का मंजर,चैटिंग में ही समझा दो


नहीं डाकिया अब आता है, फेसबुकी साथी बतला दो
कैसा है अब गांव का मंजर,चैटिंग में ही समझा दो

पनघट पर अब लय में सुरीली,पायल बजती है कि नहीं
और परब पे तीखी आंखें,काजल से सजती हैं कि नहीं

धूल,धूएं-धक्कड़ वाली,गलियों का आलम कैसा है
जिस कमसिन पे जान फिदा थी,उसका बालम कैसा है

क्या अब भी गांव की गोशाला में, गोधन पाले जाते हैं
और टुन-टुन घंटी वाली बकरी, लेकर ग्वाले आते हैं

क्या चैत सुदी पूनम का मेला अब भी वैसा भरता है
मंदिर की चौखट पर सूरज,क्या पहली किरणें धरता है

फागुन के गींदड़ में अब भी, केसरिया मेह बरसता है
आंगन-आंगन अब भी वहां,रिश्ते का नेह बरसता है

पीपल की छांव तले अब भी क्या चलती है चौपाल वहां
और दरोगा से बढ़कर, मुखिया अब भी कोतवाल वहां

तांगे की जगह ऑटो वालों को मिलती है सवारी रोज बता
जो अपने दौर में होती थी, क्या अब भी है वो मौज बता

नौबजिया खटखट बस अब भी, बेटैम वहां पर आती है
मोटियार गए जो दूर कहीं, खत उनके अभी भी लाती है

संस्कृत वाले माटस्साब, तुतलाकर पाठ पढ़ाते थे
हम बोपदेव जैसे छोरों को, विद्या जो रटंत रटाते थे

रामभुवन हलवाई के पेडे़-लड्डू का हाल बता
ईंटों वाली सैलून के नाई का सारा हाल बता

हम किस्मत के मारे बन्धु,गांव छोड़कर आ गए
दो पैसे की खातिर खुद ही अपनी संस्कृति खा गए

तब बीघों में रहते थे,अब स्क्वायर फुट की मजबूरी
तब एक आंगन में पलते थे,अब किलोमीटर की दूरी

वहां रामा-सामी चलती थी,यहां दाम-दाम की माला है
विश्वास नहीं भाई-भाई का,हर धंधा गड़बड़झाला है

काम चले या कि न चले, पर रहते हरदम व्यस्त यहां
ये शहर फरेब की धरती है,कर्जे में सारे पस्त यहां

कुंवर प्रीतम
10 अगस्त 2011

Sunday, July 10, 2011

जिए ख्वाबों में हंसकर तो कभी ख्वाबों में हम रोये
नहीं मालूम कैसे बीज पिछले जन्म में बोये
अधूरा रह गया अपना हमेशा प्यार का किस्सा
तन्हा बैठ कर हमने खुद अपने अश्क हैं धोये
कुंवर प्रीतम 
10.07.2011

Friday, April 29, 2011

कुंवर प्रीतम का मुक्तक



तुम बिन साथी कैसे बताएं, रात कटे ना दिन बीते
तन्हा जीवन निकल रहा है, यादों के आंसू पीते 
अम्बर जितना गम पसरा और सागर सी बेचैनी है
समझ गया हूँ ढाई अक्षर, हम हारे और तुम जीते
कुंवर प्रीतम  
२९.०४.२०११

कुंवर प्रीतम का मुक्तक


अजब ये देश का अपने हुवा ये हाल है यारों
सियासत ने तबीयत से किया बेहाल है यारों
जिसे मौका मिला, उसने दिया सबको दगा जमकर
हड़पकर माल वतन को कर दिया कंगाल है यारों 
कुंवर प्रीतम
२९.०४.२०११


Wednesday, April 20, 2011

नमन करते हैं हम गुरुवर


नमन करते हैं हम गुरुवर, पधारे आज इस आँगन
खिल उट्ठा ह्रदय सबका, खुशियों का झरे सावन
भक्तों के हो रखवाले, गरीबों के मसीहा तुम 
मेरे मालिक रहे आबाद, तुम्हारे दो चरण पावन

कुंवर प्रीतम 
२०.४.२०११

Monday, April 18, 2011

कुंवर प्रीतम का नया मुक्तक


नहीं कोई तमन्ना अब, बची तुमसे मोहब्बत की

नहीं ख्वाहिश रही कोयी, गैरों की इनायत की
कहा मुफलिस मुझे तुने, यही इनाम है काफी
प्रिये हाँ, देख ली ताक़त अमीरों की शराफत की

कुंवर प्रीतम
१८.४.११ 

Sunday, April 17, 2011

कुंवर प्रीतम का मुक्तक


शहर से दूर चलकर अब, चलो ऐसा बनायें घर

जहाँ रंजिश किसी से भी, न हो और न किसी का डर
खुले दिल से मिलें सबसे, बिताएं चैन का जीवन
उतारें कर्ज मिटटी का, हरदम हम ख़ुशी से तर

कुंवर प्रीतम 
कोलकाता
१७.४.२०११

कुंवर प्रीतम का नया मुक्तक


घाट घाट पर जाकर पानी, हमने खूब पिया अब तक
गम, दुश्वारी और उदासी, जीवन खूब जिया अब तक
चलते-चलते पगडण्डी पर, सांझ हो गयी जीवन की
जिसको मान सकूँ अपना वो मिला नहीं पिया अब तक 

कुंवर प्रीतम 
कोलकाता

Friday, April 15, 2011

कुंवर प्रीतम के मुक्तक


कुंवर प्रीतम के मुक्तक 

मेरा दिल क्यूँ धड़क बैठा, ये साँसें कंपकंपाई क्यूँ
तुम्ही ने कुछ किया होगा, हवाएं तेज आई क्यूँ 
अचानक क्यूँ महक आई, आकर छू गयी तन-मन
सिहर उट्ठा बदन मेरा, ये आँखें डबडबाई क्यूँ.

परिंदे रात में, ख्वाबों में आकर गुनगुनाते  हैं
नहीं मालूम मेरा गम या अपना गीत गाते हैं
गुटरगूं उनकी सुनने को मैं जब भी कान देता हूँ
झुका कर शर्म से पलकें, परिंदे भाग जाते हैं

लगाना, तोड़ देना दिल, कहो कैसी इनायत है
कभी मुझसे कहा क्यूँ था, मोहब्बत ही इबादत है
जो चाहो फैसला कर लो, मगर सुन लो हमारी भी 
है मुजरिम भी तुम्हारा औ तुम्हारी ही अदालत है 

कुंवर प्रीतम
कोलकाता 
पहला बैशाख, १५ अप्रैल २०११