नहीं डाकिया अब आता है, फेसबुकी साथी बतला दो
कैसा है अब गांव का मंजर,चैटिंग में ही समझा दो
पनघट पर अब लय में सुरीली,पायल बजती है कि नहीं
और परब पे तीखी आंखें,काजल से सजती हैं कि नहीं
धूल,धूएं-धक्कड़ वाली,गलियों का आलम कैसा है
जिस कमसिन पे जान फिदा थी,उसका बालम कैसा है
क्या अब भी गांव की गोशाला में, गोधन पाले जाते हैं
और टुन-टुन घंटी वाली बकरी, लेकर ग्वाले आते हैं
क्या चैत सुदी पूनम का मेला अब भी वैसा भरता है
मंदिर की चौखट पर सूरज,क्या पहली किरणें धरता है
फागुन के गींदड़ में अब भी, केसरिया मेह बरसता है
आंगन-आंगन अब भी वहां,रिश्ते का नेह बरसता है
पीपल की छांव तले अब भी क्या चलती है चौपाल वहां
और दरोगा से बढ़कर, मुखिया अब भी कोतवाल वहां
तांगे की जगह ऑटो वालों को मिलती है सवारी रोज बता
जो अपने दौर में होती थी, क्या अब भी है वो मौज बता
नौबजिया खटखट बस अब भी, बेटैम वहां पर आती है
मोटियार गए जो दूर कहीं, खत उनके अभी भी लाती है
संस्कृत वाले माटस्साब, तुतलाकर पाठ पढ़ाते थे
हम बोपदेव जैसे छोरों को, विद्या जो रटंत रटाते थे
रामभुवन हलवाई के पेडे़-लड्डू का हाल बता
ईंटों वाली सैलून के नाई का सारा हाल बता
हम किस्मत के मारे बन्धु,गांव छोड़कर आ गए
दो पैसे की खातिर खुद ही अपनी संस्कृति खा गए
तब बीघों में रहते थे,अब स्क्वायर फुट की मजबूरी
तब एक आंगन में पलते थे,अब किलोमीटर की दूरी
वहां रामा-सामी चलती थी,यहां दाम-दाम की माला है
विश्वास नहीं भाई-भाई का,हर धंधा गड़बड़झाला है
काम चले या कि न चले, पर रहते हरदम व्यस्त यहां
ये शहर फरेब की धरती है,कर्जे में सारे पस्त यहां
कुंवर प्रीतम
10 अगस्त 2011
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