Saturday, November 15, 2008

गुवाहाटी में आतंकवाद के खिलाफ आंदोलन शुरू

बिनोद रिंगानिया

http://binodringania.blogspot.com/
गुवाहाटी की सड़कों पर मंगलवार की दोपहर को जो जनता का समूह इकट्ठा हुआ वह असम को 29 साल पीछे ले गया। 29 साल पहले असम में अवैध घुसपैठियों के विरुद्ध एक ऐतिहासिक आंदोलन की शुरुआत कुछ इसी अंदाज में हुई थी। प्रफुल्ल कुमार महंत तथा उनके साथियों के नेतृत्व में निकाले गए जुलूस में जब अप्रत्याशित रूप से लोगों की उपस्थिति देखी गई और यह भी देखा गया कि इसमें समाज के सभी वर्ग के लोग शामिल हुए हैं तो इससे छात्र नेताओं को नई ऊर्जा मिली और विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ ऐसा आंदोलन शुरू हुआ जिसकी मिसाल भारत में और कहीं देखने को नहीं मिलती।होने को और भी बहुत सारे आंदोलन में देश में हुए हैं लेकिन असम आंदोलन के नाम से ख्यात इस घुसपैठिया विरोधी आंदोलन की खास बात थी इसका कुछ अपवादों को छोड़कर शांतिपूर्ण होना। आंदोलन का नेतृत्व छात्रों में से आया था लेकिन वह इतना परिपक्व था कि हिंसा का मतलब समझता था। आंदोलनों में हिंसा होने पर राज्य की शक्ति को उसे कुचलने में आसानी होती है। असम पर जबरदस्ती थोप दिए गए चुनावों के कारण बाद में हिंसा हुई भी और राज्य शक्ति ने उसे कुचला भी। इसके बाद का इतिहास भी लोगों के लिए अनजाना नहीं है। छात्रों का राजनेताओं में तब्दील होना और सत्ताधारी बनकर घुसपैठियों की समस्या को भूल जाना। फिर भी कुल मिलाकर असम आंदोलन आज भी अपनी जनभागीदारी और शांतिपूर्ण चरित्र के लिए याद किया जाता है।यह अजीब संयोग है कि 1979 के आंदोलन की शुरुआत भी लोगों के राजनेताओं से मोहभंग के कारण हुई थी। और मंगलवार को जज फील्ड में जो समागम हुआ वह भी जनता की राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के प्रति मोहभंग के कारण हुआ है। राजनेता भले कितने ही चालाक बनने की कोशिश करे, लोगों से यह छुपा पाने में वे बिल्कुल असफल रहते हैं कि उनके एक-एक शब्द के पीछे राजनीति छुपी रहती है। और वह राजनीति सिर्फ सत्तासुंदरी को प्राप्त करने के एकमात्र मकसद तक सीमित रहती है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होता जब कई-कई सालों तक सत्तासुख भोगने का तथाकथित जनादेश प्राप्त करने वाली राजनीतिक पार्टियों के आंदोलनात्मक कार्यक्रमों में भी चंद पार्टी कार्यकर्ताओं के ही दर्शन होते हैं। आम जनता को वैसे बंद, धरना या जुलूस वाले तथाकथित आंदोलनों से कोई लेना-देना नहीं होता।असम में बम विस्फोटों के बाद जिस तरह का जनजागरण शुरू हुआ है वैसा बंगलोर, मुंबई, जयपुर, दिल्ली या अहमदाबाद में देखने को नहीं मिला। इसका कारण यह होगा कि असमवासियों की छठी इंद्रीय ने शायद जान लिया है कि 30 अक्टूबर के बम धमाके तो एक शुरुआत भर थे आगे इससे भी भीषण विभीषिकाएं उनका इंतजार कर रही हैं। 1979 के दौरान एक लोकप्रिय नारे का भावार्थ यह था कि आज जो कुछ असम में हो रहा है वही कल सारे भारत को भोगना होगा। आज जब हम दिल्ली, जयपुर, मुंबई आदि शहरों को बांग्लादेशी आबादी से जूझते देखते हैं तो पाते हैं कि 29 साल पहले कही गई बातें सौलहों आने सच थीं।

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